हेल्थ
इंश्योरेंस पॉलिसी लेना तो जरूरी है ही लेकिन इससे ज्यादा जरूरी इसके नियम
एवं शर्तों को समझना है ताकि भविष्य में परेशानियों का सामना न करना पड़े।
अस्पतालों में बीमारी के इलाज के लगातार बढ़ते खर्चों को ध्यान में
रखते हुए हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी लेना वास्तव में जरूरी हो गया है। लेकिन
जरूरी यह भी है कि आप अपनी हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी को समझें। उसके नियम
एवं शर्तों की जानकारी आपको भली-भांति होनी चाहिए ताकि भविष्य में किसी तरह
की परेशानियों का सामना न करना पड़े।
हाल
ही में मेरे एक मित्र अपनी हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी को समय पर रिन्यू
कराना भूल गए। यह पॉलिसी उन्होंने एक जानी-मानी सरकारी बीमा कंपनी से ली
थी। पॉलिसी रिन्यू कराने की नियत तारीख से चार दिन बाद जब उन्होंने उस बीमा
कंपनी की नजदीकी शाखा में अपनी पॉलिसी रिन्यू कराने गए तो उनसे कहा गया कि
पॉलिसी लैप्स हो चुकी है और अब आपको नई पॉलिसी लेनी होगी।
नई
पॉलिसी लेने का मतलब था कि पुरानी पॉलिसियों के सभी लाभों जैसे नो क्लेम
बोनस, पहले से मौजूद बीमारियों की प्रतीक्षा अवधि आदि के लाभों से हाथ
धोना। उन्होंने बीमा कंपनी के अधिकारी की बात मानते हुए नई पॉलिसी ले ली।
बाद
में मालूम हुआ कि वह कोई अधिकारी नहीं बल्कि शाखा में बैठा हुए एक बीमा
एजेंट था जो कमीशन पाने की खातिर मेरे मित्र को नई पॉलिसी लेने की सलाह दी।
अधिकतर बीमा कंपनियां हेल्थ इंश्योरेंस को रिन्यू कराने के लिए 14-15
दिनों का ग्रेस पीरियड देती हैं।
पॉलिसी
प्रीमियम के रिन्यू कराने की नियत तारीख से 14-15 दिन बाद तक अपने पुराने
लाभों के साथ पॉलिसी रिन्यू करा सकते हैं लेकिन समय पर प्रीमियम न भरने का
कारण आपको लिखित में देना होगा। इसलिए केवल हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी लेना
ही जरूरी नहीं है बल्कि उसकी बारीकियों को समझना और उससे जुड़े नियमों की
जानकारी भी जरूरी है। इसके लिए, हमें कोई भी हेल्थ पॉलिसी खरीदने से पहले
पॉलिसी की कुछ मूल बातें और पॉलिसी शर्तों को पढऩे व समझने की जरूरत भर है।
फैमिली फ्लोटर:
फैमिली फ्लोटर एक ऐसी पॉलिसी है, जिसमें सम एश्योर्ड
सभी पॉलिसीधारकों द्वारा साझा किया जाता है। उदाहरण के तौर पर- मान लीजिए
कि सौरभ ने अपने, अपनी पत्नी अंजलि व बच्चों अनन्या और अतुल के लिए ३ लाख
रुपये की एक फैमिली फ्लोटर पॉलिसी ली है। इसका मतलब है कि सौरभ का परिवार
व्यक्तिगत व एक साथ ३ लाख रुपये तक के इंश्योरेंस का लाभ ले सकता है।
लेकिन, इससे पहले कि आप कोई भी फ्लोटर पॉलिसी खरीदें, आपको यह समझना बेहद
जरूरी होगा कि आपके परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए कितने कवर की आवश्यकता
है।
अगर आपके परिवार के हर सदस्य को ३ लाख रुपये के कवरेज
की जरूरत है तो बेहतर होगा कि आप फैमिली फ्लोटर पॉलिसी न लें। इसकी वजह है
कि अगर परिवार के किसी भी एक सदस्य पर यह पूरा कवर व्यय हो जाता है तो बाकी
सदस्यों के इंश्योरेंस कवर के लिए आपको एक नई पॉलिसी खरीदनी होगी। साथ ही,
फैमिली फ्लोटर पॉलिसी में परिवार के सबसे बड़े सदस्य की उम्र, बच्चे व
क्लेम हिस्ट्री सरीखे अन्य पहलू भी होते हैं। वहीं फ्लोटर पॉलिसी व एक
व्यक्तिगत पॉलिसी के प्रीमियम के बीच भी ज्यादा बड़ा अंतर नहीं होता।
कैपिंग
कई इंश्योरेंस कंपनियां किसी खास बीमारी/रोग की स्थिति में अस्पताल के कमरे
के किराए, डॉक्टर की फीस व अधिकांश भुगतान पर कैपिंग देती हैं। तय सीमा से
अधिक खर्च होने पर, ये कैपिंग कैशलेस सुविधाएं देने से इनकार कर देती हैं।
बेहतर होगा कि आप इन सभी कैपिंग के बारे में जांच-पड़ताल कर यह सुनिश्चित
कर लें कि किसी प्रकार की इमरजेंसी की स्थिति में ये कैपिंग अस्पताल की
आपकी प्राथमिकताओं से मिलती हैं या नहीं।
ग्रेस पीरियड
कई ग्राहक रियायती अवधि के रूप में मिलने वाले फायदे से अंजान होते हैं।
प्रत्येक इंश्योरेंस पॉलिसी में 14-30 दिनों तक का रियायती समय होता है।
जिसका मतलब है कि आप बिना किसी झंझट के अपनी पॉलिसी को रिन्यूअल की तारीख
के 14-30 दिनों के अंदर रिन्यू करा सकते हैं। अपोलो म्यूनिख हेल्थ
इंश्योरेंस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि उनकी कंपनी 30 दिनों का ग्रेस
पीरियड देती है लेकिन ग्रेस पीरियड के दौरान किसी तरह के क्लेम का निपटान
नहीं करती है।
ओरियंटल
इंश्योरेंस के जनरल मैनेजर (हेल्थ) के. के. राव ने बताया कि अगर कोई
पॉलिसीधारक हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी लैप्स होने के 15 दिनों के भीतर अपनी
पॉलिसी रिन्यू कराता है तो उसे पिछली पॉलिसी का पूरा लाभ मिलेगा लेकिन इस
अवधि के दौरान किसी भी तरह के क्लेम का निपटान नहीं किया जाता है।
फ्री-लुक अवधि
फ्री-लुक अवधि सभी सालाना पॉलिसियों पर मौजूद नहीं है। कुछ स्वास्थ्य और
साधारण बीमा कंपनियां 15 दिनों का फ्री-लुक पीरियड पॉलिसीधारकों को देती
हैं। अगर किसी कारणवश पॉलिसीधारक पॉलिसी से संतुष्ट नहीं है तो वह 15 दिनों
के भीतर उसे वापस कर सकता है। मैक्स बुपा और अपोलो म्यूनिख के ऑप्टिमा
रिस्टोर आदि पॉलिसियों के तहत 15 दिनों का फ्री-लुक पीरियड उपलब्ध है।
लोडिंग एवं सह-भुगतान:
अगर आपने पहले वर्ष में कोई क्लेम किया है तो कंपनियां आम तौर पर आपके
रिन्यूअल प्रीमियम पर अतिरिक्त बोझ डालती हैं। खास तौर पर यह फैमिली फ्लोटर
पॉलिसी का एक सबसे नकारात्मक पहलू हैं क्योंकि अगर परिवार का कोई एक सदस्य
अस्पताल में भर्ती होता है और वह क्लेम करता है तो ऐसी स्थिति में सभी
सदस्यों को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।
मेडिकल
जांच के दौरान उसमें किसी गड़बड़ी के आने पर भी लोडिंग लगाई जाती है। कई
कंपनियों की पॉलिसी शर्तों में क्लेम किए जाने पर भी नो-लोड शर्त जारी रहती
है। लेकिन कभी भी हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी खरीदने के लिए इसे कसौटी न
बनाएं।
को-पेमेंट
को-पेमेंट वह शर्त है जिसमें आपको किसी खास इलाज के लिए हॉस्पिटलाइजेशन में
आने वाले कुल खर्च के एक निश्चित प्रतिशत का भुगतान करना होता है। ये शर्त
महज वरिष्ठ नागरिकों की पॉलिसियों पर ही लागू होती है। विभिन्न पॉलिसियों
में सह-भुगतान 10-30 प्रतिशत होता है।
क्लेम की प्रक्रिया
कंपनी के ब्रोशर में यह साफ लिखा होता है कि कैशलेस सुविधा पाने के लिए
आपको अस्पताल में भर्ती होने के 24 घंटों के अंदर कंपनी को सूचित करना होता
है। किसी भी किस्म की देरी होने पर आप इसका फायदा लेने से चूक जाएंगे।
क्लेम प्रक्रिया को समझना आपके लिए जितना जरूरी है, उतना ही आपके परिवार के
लिए भी जरूरी है। अपने सभी कागजातों को किसी ऐसी जगह रखें, जहां आपके
परिवार की आसानी से पहुंच हो।
हॉस्पिटल नेटवर्क
कंपनी का एक खास हॉस्पिटल नेटवर्क होता है, जिसमें कैशलेस सुविधाएं मौजूद
होती हैं। अगर अस्पताल कंपनी या नियामक द्वारा निर्धारित किए गए
दिशा-निर्देशों की श्रेणी में नहीं आता, तो बीमित क्लेम की अदायगी से वंचित
रह जाएगा। अपने अस्पताल के चयन की भी जांच करें और देखें कि यह नेटवर्क का
हिस्सा है या नहीं।
हेल्थ
इंश्योरेंस पॉलिसी के चयन के समय इनमें से किसी एक नियम को कसौटी न बनाएं।
पॉलिसी लेने से पहले पॉलिसी के सभी शब्दों को सावधानी से पढ़कर अपनी
शंकाएं मिटा लें।
कैसे चुनें उपयुक्त मेडिक्लेम पॉलिसी- उपयुक्त मेडिक्लेम पॉलिसी का चयन करते समय विभिन्ना पॉलिसियों के तहत उपलब्ध फायदों एवं अपवादों जैसे प्रीमियम, क्लेम सैटेलमेंट प्रक्रिया, कैशलेस फेसिलिटी, हॉस्पिटल नेटवर्क टाई-अप, अधिकतम बीमाधन की उपलब्धता, बीमाधन को बढ़वाने की शर्त, पॉलिसी लेने की न्यूनतम व अधिकतम उम्र, पॉलिसी रिन्यू कराने की अधिकतम आयु, हॉस्पिटलाइजेशन, प्री-हॉस्पिटलाइजेशन एवं पोस्ट हॉस्पिटलाइजेशन बेनीफिट, रूम रेंट, को-पेमेंट चार्जेस, डे केयर, डॉमिन्साइल ट्रीटमेंट, पूर्व से मौजूद बीमारी का कवरेज, विभिन्ना बीमारियाँ जो कवर नहीं होंगी अथवा कुछ वर्षों बाद कवर होने वाली बीमारियाँ, नो-क्लेम बोनस, नो-क्लेम डिस्काउंट अथवा कोई ऐसे खर्च, जिनकी सीमा निर्धारित की गई हो आदि की जानकारी ले लेना चाहिए।
हेल्थ
इंश्योरेंस सेक्टर ने हाल में कस्टमर्स
से नए वायदे किए हैं। पोर्टेबिलिटी के रूप में 1 अक्टूबर यानी शनिवारसे इन वायदों की शुरुआत भी कर दी गई है। हेल्थ
इंश्योरेंस सेक्टर के तमाम कायदों, फायदों
और वायदों की पूरी जानकारी पेश कर रहे हैं प्रभात गौड़ :
मेडिकल टेस्ट
45 साल से कम
उम्र के हैं तो पॉलिसी लेने से पहले किसी मेडिकल चेकअप की जरूरत नहीं होती। कुछ
कंपनियों में यह उम्र 60 साल भी है। 45 साल वालों को जो टेस्ट कराने होते हैं, वे कस्टमर को अपने खर्च पर कराने होते
हैं। कई बार रिपोर्ट कस्टमर खुद ही कंपनी को देता है और कई बार कंपनी में सीधे
रिपोर्ट चली जाती है। दोनो ही मामलों में कस्टमर के पास इतना मौका होता है कि वह
अपनी रिपोर्ट की फोटोकॉपी कराकर रख सके। कुछ कंपनियां प्रपोजल फॉर्म के साथ ही
टेस्ट रिपोर्ट लगवाती हैं तो कुछ फॉर्म भर देने के बाद। कई कंपनियां यह भी बताती
हैं कि टेस्ट कहां से कराने हैं। जो टेस्ट कराने पड़ते हैं, उन्हें हर कंपनी अपने हिसाब से तय करती
है। फिर भी उनमें मोटे तौर पर ये टेस्ट होते हैं : बीपी, ब्लड शुगर, एसजीपीटी, कॉलेस्ट्रॉल, ट्राइग्लिसराइड्स, यूरीन रुटीन, ईसीजी, चेस्ट
का एक्सरे, मोतियाबिंद और ग्लूकोमा आदि।
क्या होता है टीपीए
टीपीए एक तरह की
कंपनी होती है, जो इंश्योरेंस कंपनी से अलग होती है। यह
इंश्योरेंस कंपनी के लिए एक तरह के बीपीओ (प्रतिनिधि) के तौर पर काम करती है।
हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी से संबंधित क्लेम के निपटारे और उसके तमाम पहलुओं को यही
को-ऑर्डिनेट करती है। इन कंपनियों के पास इरडा का लाइसेंस होता है। इनका काम अस्पतालों
के साथ मरीज के ट्रीटमेंट को लेकर को-ऑर्डिनेट करना और इंश्योरेंस कंपनी की तरफ से
बिल पास करना होता है। जो शख्स इंश्योर्ड होता है, उसे टीपीए ही आईकार्ड मुहैया कराती है। इस आईकार्ड की जरूरत हॉस्पिटल
में भर्ती होते वक्त पड़ती है। आजकल कुछ कंपनियां टीपीए रखती हैं, जबकि कुछ कंपनियां यह काम इनहाउस ही कराती
हैं।
कूलिंग ऑफ पीरियड
जिस दिन कोई शख्स
हेल्थ पॉलिसी खरीदता है, उस दिन से 30 दिन तक का वक्त कूलिंग ऑफ पीरियड कहलाता है। इसका मतलब है कि इन दिनों
के दौरान अगर उस शख्स को ऐक्सिडेंट की वजह से अस्पताल में भर्ती कराया जाता है, तब तो कवरेज पहले दिन से होगी, लेकिन अगर किसी बीमारी की वजह से कराया
जाता है तो उसे कवरेज इंश्योरेंस पॉलिसी लेने के 31वें दिन से मिलेगी। अगर साल पूरा होने के बाद पॉलिसी रिन्यू कराई गई
है तो फिर यह शर्त लागू नहीं होती, बशर्ते
रिन्यूअल प्रीमियम समय से पे कर दिया गया है। अगर आप पॉलिसी तय वक्त के बाद रिन्यू
कराते हैं तो उसे नई पॉलिसी माना जाएगा और इसमें आपको नो क्लेम बोनस नहीं मिलेगा
और कूलिंग ऑफ पीरियड भी लागू हो जाएगा।
पहले से मौजूद
बीमारियां (प्री-एग्जिस्टिंग डिजीज)
अपनी जिन बीमारियों
के बारे में आपको पॉलिसी लेते वक्त पता है, उन्हें प्री-एग्जिस्टिंग डिजीज कहते हैं।
हर कंपनी की प्री-एग्जिस्टिंग डिजीज की अपनी एक लिस्ट होती है। इस लिस्ट में शामिल
बीमारियों का कवर कंपनी पॉलिसी के चार साल बाद देगी। कुछ बीमारियां ऐसी भी होती
हैं, जो कभी भी कवर नहीं होतीं। इनकी भी हर
कंपनी की अपनी लिस्ट होती है। मसलन एचआईवी, मनोरोग
आदि।
नो क्लेम बोनस
अगर पॉलिसी की पूरी
अवधि के दौरान कोई शख्स पॉलिसी से कोई क्लेम नहीं लेता है तो कंपनी उसे कुछ बोनस
देती है। इसके कई तरीके हो सकते हैं।
कुछ कंपनियां सम
इंश्योर्ड को पांच से दस फीसदी तक बढ़ा देती हैं। आईसीआईसीआई लोम्बार्ड, अपोलो म्यूनिख और रॉयल सुंदरम जैसी
कंपनियां इसी तरीके को फॉलो करती हैं।
जब लोग पॉलिसी
रिन्यू कराते हैं तो कुछ कंपनियां नए प्रीमियम पर 5 से 10 फीसदी का डिस्काउंट दे देती हैं। कुछ
कंपनियों का डिस्काउंट साल-दर-साल बढ़ता जाता है, जबकि कुछ कंपनियां एक ही दर से हर साल डिस्काउंट देती हैं।
मैक्स बूपा जैसी कुछ
कंपनियां प्रीमियम अमाउंट के 10 फीसदी
के बराबर रकम का वाउचर दे देती हैं। इसे ओपीडी या तमाम तरह के मेडिकल टेस्ट कराने
के लिए यूज किया जा सकता है, जबकि
कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं जो नो क्लेम की स्थिति में कोई डिस्काउंट नहीं देतीं।
मेडिक्लेम में क्या
होता है कवर और क्या नही
ये खर्च कवर होते
हैं
अगर कोई शख्स
ऐक्सिडेंट या किसी बीमारी की वजह से 24 घंटे
या उससे ज्यादा वक्त के लिए अस्पताल में भर्ती हुआ है तो वह कवर होगा। इसमें ये
खर्च शामिल होंगे :
कमरे का खर्च। आमतौर
पर कंपनियां यह सीमा लगा देती हैं कि इस मद में वे रोज कुल रकम की एक फीसदी से
ज्यादा पैसा नहीं देंगी। मसलन अगर तीन लाख की पॉलिसी है और रूम का रोज का कुल खर्च
6 हजार रुपये हो गया तो कंपनी आपको सिर्फ 3 हजार ही देगी।
नर्सिंग और आईसीयू
के खर्च।
तमाम तरह के
विशेषज्ञ डॉक्टरों की सलाह और रूम विजिट की फीस।
हॉस्पिटलाइजेशन से
पहले के खर्च। इसकी सीमाएं हैं। भर्ती होने से 30 दिन पहले तक अगर डॉक्टर के कहने पर मरीज के कुछ टेस्ट या एक्स-रे आदि
कराए जाते हैं, तो वे कवर होंगे।
हॉस्पिटलाइजेशन के
बाद के खर्च। इसकी भी सीमाएं हैं। अस्पताल से छुट्टी मिलने के 60 दिन बाद तक डॉक्टर के बताए गए इलाज के जो
भी खर्च हैं, वे कवर होते हैं।
कुछ खास तरह की डे
केयर सर्जरी भी कवर होती हैं। इनमें अस्पताल में 24 घंटे भर्ती होने की शर्त नहीं होती। मसलन : कोरोनरी एंजियोग्राफी, कोरोनरी एंजियोप्लास्टी, ऐक्सिडेंट के बाद होने वाली डेंटल सर्जरी
आदि।
ऐम्बुलेंस का खर्च, हॉस्पिटल का रोजाना का खर्च जैसे कई मद भी
कुछ सीमाओं के साथ कवर होते हैं, लेकिन
इनमें बहुत कुछ पॉलिसी और कंपनी पर निर्भर करता है।
ये खर्च कवर नहीं
होते
पास के किसी
डॉक्टर से अगर आप घर पर या अस्पताल/क्लिनिक जाकर इलाज कराते हैं, लेकिन अस्पताल में भर्ती नहीं होते तो
उसका खर्च पॉलिसी में कवर नहीं होगा। अगर वायरल बुखार 104 डिग्री से ऊपर चला जाए और उसके कारण मरीज
को अस्पताल में कम-से-कम 24
घंटे के लिए भर्ती
कराया जाए, तो उसका खर्च कवर हो जाता है।
मैटरनिटी का खर्च इन
पॉलिसियों में आमतौर पर कवर नहीं होता, लेकिन
मैक्स बूपा और अपोलो म्यूनिख जैसी कुछ कंपनियां कुछ सीमा और शर्तों के साथ यह कवर
दे देती हैं। अगर आपकी पॉलिसी ग्रुप मेडिक्लेम पॉलिसी है, तो उसमें मैटरनिटी खर्च कवर होते हैं। एक
ही कंपनी जब ग्रुप मेडिक्लेम देती है तो इसे कवर करती है, वही कंपनी जब इंडिविजुअल कवर देती है तो
इसे कवर नहीं भी करती। गौरतलब है कि ग्रुप मेडिक्लेम से मतलब उस कवर से होता है जो
आपकी कंपनी की तरफ से आपको दिया जाता है।
ओपीडी, डेंटल, चश्मा, हियरिंग ऐंड आदि भी आमतौर पर कवर नहीं किए
जाते, लेकिन अपोलो म्यूनिख और मैक्स बूपा जैसी
कुछ कंपनियां कुछ सीमाओं और शर्तों के साथ इन्हें कवर करती हैं।
कुछ काम की बातें
पॉलिसी लेते वक्त
कंपनी द्वारा मांगी गई सूचनाओं को सही-सही दें। कई बार प्री-एग्जिस्टिंग डिजीज में
लोग ऐसी बीमारी को छिपा जाते हैं, लेकिन
इससे नुकसान ही होता है क्योंकि जब ऐसी किसी बीमारी का क्लेम लेने आप जाएंगे तो
डॉक्टर अपनी रिपोर्ट में यह साफ कर देगा कि वह बीमारी आपको कब से है।
आयुर्वेदिक और
होम्योपैथी से इलाज कराने का खर्च भी कुछ पॉलिसियां कवर कर रही हैं, लेकिन यह सवाल बेमानी है क्योंकि
मेडिक्लेम का मतलब हॉस्पिटलाइजेशन से है व इन पद्धतियों में मोटे तौर पर
हॉस्पिटलाइजेशन होता नहीं है। अगर कभी होता है तो कुछ कंपनियों बहुत कम रकम इसमें
देती हैं। नेचरोपैथी ट्रीटमेंट किसी भी हेल्थ पॉलिसी में कवर नहीं होता।
सभी बड़े हॉस्पिटल्स
आमतौर पर सभी टीपीए और सभी कंपनियों को कवर करते हैं। कई बार कस्टमर अपनी पॉलिसी
की शर्तों से वाकिफ नहीं होते। असली बात उन्हें तब पता चलती है, जब अस्पताल उन्हें मना कर देता है इसलिए
शर्तों को सही से पढ़ना जरूरी है।
अगर कैशलेस नहीं करा
रहे हैं तो अस्पताल से बिल लेने के बाद कंपनी से रीइंबर्स कराया जा सकता है।
अस्पताल में ये बातें जरूर हों : कम-से-कम 10 बेड
हों, रजिस्टर्ड हो, खुद का ऑपरेशन थिएटर हो, 24 घंटे नर्सिंग स्टाफ और डॉक्टर की सुविधा
हो।
टीपीए और कंपनी में
से कोई भी क्लेम नहीं दे रहा है तो आप कंपनी के हेड ऑफिस में शिकायत कर सकते हैं।
अगर यहां से संतुष्टि नहीं मिलती तो आपके पास इंश्योरेंस ओम्बड्समैन में जाने का
भी ऑप्शन भी है।
अगर कोई यंग और
हेल्दी भी है तो भी उसे यह पॉलिसी लेनी चाहिए क्योंकि बीमारी और ऐक्सिडेंट जैसी
चीजें किसी के साथ कभी हो सकती हैं।
कई कंपनियां अपने
एम्प्लॉई को हेल्थ इंश्योरेंस मुहैया कराती हैं। आपको भी ठीकठाक अमाउंट का कवर है
तो हेल्थ इंश्योरेंस अलग से लेने से बच भी सकते हैं। ऐसे लोग टॉप अप भी ले सकते
हैं। अगर आपका दो लाख का कवर कंपनी की तरफ से है तो आप 2 लाख से 6 लाख तक का टॉप अप किसी कंपनी से ले सकते हैं और उसके लिए अलग से
प्रीमियम पे कर सकते हैं। टॉप अप के रूप में लिया गया आपका कवर थोड़ा सस्ता पड़ता
है।
जिस साल आपने अपनी
मेडिक्लेम पॉलिसी से क्लेम लिया है, उससे
अगले साल इस बात के लिए तैयार रहें कि पॉलिसी रिन्यू करते वक्त कंपनी लोडिंग लगा
देगी। लोडिंग का मतलब है कि अब आपको पहले से ज्यादा प्रीमियम देना होगा। यह
बढ़ोतरी 20 से 200 फीसदी
तक की जा सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिस मर्ज के लिए आपने क्लेम
लिया है, उसकी स्थिति क्या है। अगर कंपनी को लगता
है कि वह मर्ज ऐसा है कि आपको बार बार हॉस्पिटल जाना होगा तो वह ज्यादा प्रीमियम
बढ़ा देती है।
पोर्टेबिलिटी का
फायदा
1 अक्टूबर से
हेल्थ इंश्योरेंस सेक्टर में पोर्टेबिलिटी लागू हो चुकी है। इसके बाद पॉलिसी
होल्डर बेसिक कवरेज खोए बिना अपनी इंश्योरेंस कंपनी बदल सकेंगे।
आमतौर पर देखा जाता
है कि कुछ इंश्योरेंस कंपनियां हर साल पॉलिसी का प्रीमियम बढ़ा देती हैं। कस्टमर
चाहकर भी कंपनी छोड़ नहीं पाता क्योंकि पॉलिसी में कई फायदे कुछ साल बाद ही मिलते
हैं। कोई बीच में छोड़कर किसी दूसरी कंपनी के पास चला जाए तो वह कंपनी उसे नए
कस्टमर के तौर पर लेती है। ऐसे में कई बीमारियों पर क्लेम करने के लिए कस्टमर को
दो से पांच साल इंतजार करना पड़ता है। नए नियमों के मुताबिक, कस्टमर 'ए' कंपनी में दो साल बने रहने के बाद उससे
तंग आ गया है तो 'बी' कंपनी
में जा सकता है और 'बी' कंपनी
में उसका स्टेटस नए कस्टमर का नहीं, बल्कि
दो साल पुराने कस्टमर का होगा। फायदे भी उसी हिसाब से मिलेंगे।
कंपनियां कुछ
बीमारियों के लिए क्लेम चार साल बाद देती हैं। इसे प्री-एग्जिस्टिंग कवर कहा जाता
है और इस फायदे के लिए कस्टमर उसी कंपनी में बने रहता है। अब नई कंपनी में भी यह
फायदा लिया जा सकेगा। मतलब अगर पुरानी कंपनी में आपने दो साल पूरे कर लिए हैं तो
तो नई कंपनी ऐसे कवर आपको चार की बजाय दो साल बाद ही दे देगी।
पॉलिसी लेने के बाद
अगर आप पूरे साल किसी तरहका क्लेम नहीं करते हैं तो अगले प्रीमियम में 5 से 50 फीसदी
डिस्काउंट मिलता है। डिस्काउंट सालाना आधार पर मिलता है। कुछ कंपनियां हेल्थ चेकअप
के वाउचर भी देती हैं। पोर्टेबिलिटी के बाद अब आप इस फायदे को नई कंपनी में भी
कैरी-फॉरवर्ड कर सकते हैं।
कन्ज़यूमर को
इंश्योरेंस कंपनी बदलने के लिए अपनी पॉलिसी एक्सपायर होने के कम-से-कम 45 दिन (डेढ़ महीना) पहले बताना होगा।
पोर्टेबिलिटी का
सबसे बड़ा फायदा उन लोगों को होगा, जो
स्वस्थ हैं और उन्होंने अपनी कंपनी से कोई क्लेम नहीं लिया है। ऐसे लोगों को अगर
लगता है कि उनकी कंपनी की टर्म्स खराब हैं और प्रीमियम महंगा, तो वे दूसरी कंपनी में आसानी से शिफ्ट कर
सकेंगे। जो लोग अस्वस्थ हैं, उन्हें
इसका फायदा ज्यादा नहीं होगा।
जिन लोगों को ग्रुप
पॉलिसी (कंपनी की तरफ से मिला हेल्थ इंश्योरेंस) मिली हुई है, उन्हें भी इसका बहुत फायदा होगा। ऐसे लोग
ग्रुप पॉलिसी से बाहर आकर उसी कंपनी से इंडिविजुअल पॉलिसी ले सकेंगे। अगर कोई शख्स
रिटायर हो रहा है या कंपनी छोड़ रहा है तो ग्रुप पॉलिसी देने वाली कंपनी ही उसे
कवर देगी। हां उसकी टर्म-कंडिशंस कंपनी तय करेगी। अब तक रिटायरमेंट के वक्त कंपनी
छोड़ने पर उस उम्र में कोई कंपनी पॉलिसी नहीं देती थी। ऐसे मामलों में अब ग्रुप
पॉलिसी देने वाली कंपनी ही पॉलिसी दे देगी। प्री-एग्जिस्टिंग डिजीज का चक्कर खत्म
होगा क्योंकि उसी कंपनी की ग्रुप पॉलिसी में वह शख्स कवर्ड था और प्री-एग्जिस्टिंग
वाले चार साल वह पहले ही पूरे कर चुका है।
पॉलिसी लेने के टॉप 5 टिप्स
1. टीपीए: आजकल कुछ कंपनियां इनहाउस टीपीए पर ही
क्लेम सेटलमेंट के लिए भरोसा कर रही हैं। ये कंपनियां इस काम को बाहर के टीपीए को
आउटसोर्स नहीं करतीं। ऐसी कंपनी चुनना बेहतर माना जाता है, जिसका इनहाउस टीपीए है। ऐसी कंपनियों में
शामिल हैं बजाज एलियांज जनरल इंश्योरेंस, स्टार
हेल्थ ऐंड एलाइड इंश्योरेंस, आईसीआईसीआई
लॉम्बर्ड और मैक्स बूपा हेल्थ इंश्योरेंस। वैसे कस्टमर का यह कानूनी हक है कि वह
अपनी पसंद का टीपीए चुन सके। साथ ही हक यह भी है कि वह टीपीए चुने ही न। वह कंपनी
से यह कह सकता है कि मुझे टीपीए नहीं चाहिए और इस वजह से आपका जो खर्च मेरे ऊपर कम
हो रहा है, उसके बदले आप मेरा प्रीमियम कम कर दें, लेकिन ये दोनों ही बातें कागजी हैं।
प्रैक्टिकली ऐसा होता नहीं है। कंपनी आपको टीपीए देगी ही और अपने मुताबिक ही देगी।
टीपीए कौन सा हो, इसकी जानकारी आपके एजेंट आपको दे सकते
हैं। वैसे गंगाराम अस्पताल के डायरेक्टर (फाइनैंस) रक्षा और टीटीके को अच्छा टीपीए
मानते हैं।
2. अस्पतालों का
नेटवर्क: जिस कंपनी से पॉलिसी ले रहे हैं, उसका अस्पतालों का नेटवर्क देखें। जरा
सोचें, अगर आप बीमार पड़ गए, तो आपकी जगह के पास पास कौन से कुछ ऐसे
अस्पताल हैं जहां आप जाना प्रेफर करेंगे। अगर ये अस्पताल उस कंपनी की लिस्ट में
हैं, तभी पॉलिसी लेनी चाहिए।
3. अस्पताल से रिश्ते: हालांकि जानना थोड़ा मुश्किल है फिर भी यह
देखें कि टीपीए का अस्पतालों से रिश्ता कैसा है। मसलन अस्पताल का पेमेंट निबटाने
में टीपीए कितना तेज है। अगर वह इस मामले में ठीक है और अस्पतालों का पैसा लटकाता
नहीं है तो अस्पताल ऐसे टीपीए के केस को अच्छी तरह से हैंडल करते हैं। लेकिन जो
डिफॉल्टर टीपीए हैं, उनके कस्टमर को अस्पतालों में कैशलेस इलाज
कराने में दिक्कत होती है। ये टीपीए अस्पताल का पैसा समय से नहीं देते। हां ऐसे
मामलों में अस्पताल बिल देकर इलाज कर देते हैं, जिसे
मरीज बाद में अपने टीपीए से रीइंबर्स करा सकता है।
4. फैमिली
फ्लोटर या इंडिविजुअल हेल्थ इंश्योरेंस: पॉलिसी दो तरह की आती हैं। पहली इंडिविजुअल पॉलिसी और दूसरी फैमिली
फ्लोटर। आमतौर पर फैमिली फ्लोटर प्लान लेने की बात कही जाती है, लेकिन इस प्लान की भी अपनी खामियां होती
हैं। पहले दोनों का फर्क समझ लेते हैं। एक परिवार में तीन सदस्य हैं। तीनों ने
अलग-अलग इंडिविजुअल पॉलिसी ली हैं 2-2 लाख
रुपये की। इसका मतलब यह हुआ कि इनमें से हर शख्स दो लाख तक का क्लेम कर सकता है।
अगर यही परिवार इंडिविजुअल की बजाय 4 लाख
रुपये का फैमिली फ्लोटर प्लान ले ले, तो
तीनों में से कोई भी शख्स इन चार लाख रुपये को क्लेम कर सकता है। यानी कुल अमाउंट
चार लाख है और इसे किसी भी तरह से तीनों लोग क्लेम कर सकते हैं।
फैमिली फ्लोटर की
कुछ कमियां
ऊपरी तौर पर
फायदेमंद नजर आने वाले फैमिली फ्लोटर प्लान की कुछ कमियां भी हैं।
परिवार के सबसे बड़े
शख्स की उम्र के हिसाब से इस पॉलिसी की कीमत तय होती है। जितनी ज्यादा उम्र, उतनी महंगी पॉलिसी।
पॉलिसी तभी तक
रिन्यू होगी, जब तक कि परिवार का सबसे ज्यादा उम्र वाला
शख्स कंपनी द्वारा निर्धारित उम्र तक नहीं पहुंचता।
कई पॉलिसी बाजार में
ऐसी भी हैं जो सबसे ज्यादा उम्र के सदस्य की मौत की स्थिति में बचे हुए लोगों को
कवर देना बंद कर देती हैं।
केवल बेहद नजदीकी
लोगों को ही फैमिली माना जाताहै। फैमिली में भाई, बहन या पैरंट्स तक को शामिल नहींकिया जाता।
जैसे ही बच्चा 25 साल का होगा, वह पॉलिसी से बाहर हो जाएगा क्योंकि फिर
उसे फैमिली का हिस्सा नहीं माना जाएगा। इसलिए अगर डिपेंडेंट पैरंट्स हैं तो फैमिली
फ्लोटर आपको सूट नहीं करती।
अगर किसी परिवार का
सबसे बड़ा शख्स 40 साल से ऊपर का है तो उसके लिए भी फैमिली
फ्लोटर ठीक नहीं है।
जो लोग यंग हैं, उन्हें फैमिली फ्लोटर पॉलिसी लेनी चाहिए
क्योंकि यह इंडिविजुअल से थोड़ी सस्ती पड़ती है।
इंडिविजुअल पॉलिसी
में आमतौर पर रिन्यू कराने के लिए कोई अधिकतम उम्र सीमा नहीं होती, जबकि फैमिली फ्लोटर में होती है।
5. लिंक-अप का
चक्कर: कई पॉलिसियों में रूम रेंट लिंक-अप होता
है। ऐसी पॉलिसियों से बचना चाहिए। मसलन आमतौर पर रूम रेंट सम इंश्योर्ड का 1 फीसदी होता है। किसी की 1 लाख की पॉलिसी पर उसे 1000 रुपये ही डेली रूम रेंट के मिलेंगे, लेकिन अगर उसने रूम 2 हजार रुपये का ले लिया तो उसे बाकी 1000 रुपये जेब से देने होंगे। इसी के साथ
डॉक्टर की कंसल्टेशन, नर्सिंग आदि के खर्च भी कंपनी आधे ही वहन
करेगी। आधा पैसा मरीज को जेब से देना होगा। यह उसी अनुपात में होगा, जिस अनुपात में आपने लग्जरी ली है यानी
जितना ज्यादा अच्छा रूम लिया है। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि पॉलिसी में
को-पेमेंट का क्लॉज न हो। मसलन पॉलिसी में यह न हो कि कंपनी कुल खर्च का सिर्फ 80 फीसदी ही पे करेगी और बाकी रकम मरीज खुद
देगा।
Six frequently asked questions on health insurance
What will the health insurance policy pay for and when?
A
health insurance policy ideally covers -
In-patient Treatment - Covers hospitalisation
expenses due to an illness or accident. Pays for medical expenses
incurred for room rent, boarding expenses, nursing, intensive care unit,
medical practitioner, medicines or drugs and other related expenses
Pre-Hospitalisation- Pays for medical expenses incurred due to an illness immediately before hospitalisation
Post-Hospitalisation- Pays for medical expenses incurred immediately after the discharge post hospitalisation
Day care procedures- Pays for medical expenses which do not require 24 hours hospitalisation
Will the premium increase every year or remain constant? What
happens to the renewal premium if I make a claim in the existing year
and what happens if I do not make a claim?
The premiums charged by the health insurance company is usually the
same for specific age groups such as 0 – 18, 19 – 30, 31 – 45, 46 -55,
56 – 60 and 60+. The premium usually remains constant as long as you are
in the same age bracket. But once you shift from one age bracket to
another the premium will increase.
If you make a claim in the existing year, then chances are your
renewal premium will be increased. The increase in premium is called
load premium which can be looked at as an extra cost for the additional
risk the insurance company is covering. But nowadays insurance companies
state on their policy document that they will not load your premium for
first five years irrespective of your claim history.
If you do not make a claim in the existing year, then the insurance
company usually offers you a bonus. This bonus could be in the form of
discount in premium or increase in sum assured amount.
What are the important things to check in the policy?
1. Check the list of hospitals that are tied up with the insurance company
2. Check
the waiting period for pre-existing diseases. Usually an insurance
company covers the expenses on pre-existing diseases after a period of 3
years.
3. Check if there is a clause of co-payment (means that the
policyholder has to bear some percentage of expense of the claim). The
co-pay clause is usually a feature in senior citizen health insurance
policies.
4. Check the exclusions in the policy. This is important as
one should be aware of the limitations in your policy and therefore
avoid any chaos at the time of a claim.
Can I take 2 health insurance policies? How will I make a claim in that scenario?
Yes you can take multiple health insurance plans from the same
company or different company. In fact it is a good idea to take two
health plans from different companies and diversify. There are many ways
in which you can make a claim in multiple policies but the most
practiced approach is splitting it between the companies in proportion
of the sum assured availed. So let’s say, you have a policy from Company
A of 3 lacs and from Company B of 6 lacs. Now the claim amount is 3
lacs then you can submit a claim to Company A for 1 lac and Company B
for 2 lacs. However, once the new guidelines come into effect, chances
are that you will be allowed to file a claim for the entire amount with
the company you wish to.
Does everyone offer cashless facility or we have to ask for it?
Yes, cashless service has become an inherent part of a health
insurance policy. The public sector general insurance companies offer a
discount in premium if you opt out of the cashless service but not many
people avail the same.
What if the insurance company refused to settle my claim and I
want to file a complaint against them? Also say they do process the
claim but I am unhappy with the amount approved by them, then what can I
do?
To monitor policyholder’s grievances and turn around times, IRDA has
implemented the Integrated Grievance Management System (IGMS). IGMS
provides a gateway for policyholders to register complaints with
insurance companies first and if need be escalate them to the IRDA
Grievance Cells. IRDA Grievance Call Centre (IGCC) can be accessed
through a toll free number 155255 for voice calls or
complaints@irda.gov.in